Sunday 18 November 2018

25 % आरछण

निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान मध्यवर्ग के बाद गरीब और वंचित वर्गों के लोगों का भी सरकारी स्कूलों से भरोसा तोड़ने वाला कदम साबित हो रहा है। यह एक तरह से गैर बराबरी और शिक्षा के बाजारीकरण को बढ़ावा देता है और सरकारी स्कूलों में पढ़ने वालों का भी पूरा जोर निजी स्कूलों की ओर हो जाता है। जो परिवार थोड़े-बहुत सक्षम हैं वे अपने बच्चों को पहले से ही निजी स्कूलों में भेज रहे हैं लेकिन जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति कमजोर है, कानून द्वारा उन्हें भी इस ओर प्रेरित किया जा रहा है। लोगोंका सरकारी स्कूलों के प्रति विश्वास लगातार कम होता जा रहा है जिसके चलते साल दर साल सरकारी स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या घटती जा रही है। ऐसा नहीं है कि इससे पहले अभिभावकों में निजी स्कूलों के प्रति आकर्षण नहीं था लेकिन उपरोक्त प्रावधान का सबसे बड़ा संदेश यह जा रहा है कि सरकारी स्कूलों से अच्छी शिक्षा निजी स्कूलों में दी जा रही है इसलिए सरकार भी बच्चों को वहां भेजने को प्रोत्साहित कर रही है। देखने में आ रहा है कि शिक्षातंत्र का ज्यादा जोर मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के तहत तय किए गए निजी स्कूलों की 25 फीसद सीटों पर दाखिले को लेकर है और वहां के शिक्षक इलाके के गरीब बच्चों के निजी स्कूलों में दाखिले के लिए ज्यादा दौड़ भाग कर रहे हैं। सरकारी स्कूलों के शिक्षक इस बात से हतोत्साहित भी हैं कि उन्हें अपने स्कूलों में बच्चों के दाखिले के बजाय निजी स्कूलों के लिए प्रयास करना पड़ रहा है। इस प्रकार पहले से कमतर शिक्षा का आरोप झेल रहे सरकारी स्कूलों पर स्वयं सरकार ने कमतरी की मुहर लगा दी है। यह प्रावधान सरकारी शिक्षा के लिए भस्मासुर बन चुका है। यह एक गंभीर चुनौती है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि अगर सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था ही धवस्त हो गई तो फिर शिक्षा का अधिकार की कोई प्रासंगिकता ही नहीं बचेगी। इधर सरकारी स्कूलों को कंपनियों को ठेके पर देने या ‘पीपीपी मोड’ पर चलाने की चर्चाएं जोरों पर हैं और कम छात्र संख्या के बहाने इन स्कूलों को बड़ी तादाद में बंद किया जा रहा है। निजी स्कूल मालिकों की लॉबी और नीति निर्धारकों का पूरा जोर इस बात पर है कि किसी तरह से सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को नाकारा साबित कर करते हुए इसे पूरी तरह ध्वस्त कर दिया जाए ताकि निजीकरण के लिए रास्ता बनाया जा सके। निजीकरण से भारत में शिक्षण के बीच खाई बढ़ेगी और गरीब और वंचित समुदायों के बच्चे शिक्षा से वंचित हो जाएंगे। 1964 में कोठारी आयोग ने प्राथमिक शिक्षा को लेकर कई ऐसे महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए थे जो आज भी लक्ष्य बने हुए हैं। आयोग का सुझाव था कि समाज के अंदर व्याप्त जड़ता सामाजिक भेद-भाव को समूल नष्ट करने के लिए समान स्कूल प्रणाली एक कारगर औजार होगी। समान स्कूल व्यवस्था के आधार पर ही सभी वर्गों और समुदायों के बच्चे एक साथ समान शिक्षा पा सकते हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज के उच्च कहे जाने वाले वर्गों के लोग सरकारी स्कूल से भागकर निजी स्कूलों का रुख करेंगे और पूरी प्रणाली ही छिन्न-भिन्न हो जाएगी। लोकतंत्र में राजनीति ही सब कुछ तय करती है लेकिन दुर्भाग्यवश शिक्षा का मुद्दा हमारी राजनीतिक पार्टियों के एजेंडे में नहीं है और न यह उनकी विकास की परिभाषा के दायरे में आता है। हमारे राजनेता नारे गढ़ने में बहुत माहिर हैं, अब देश के बच्चों के लिए भी उन्हें एक नारा गढ़ना चाहिए ‘सबके लिए समान, समावेशी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा’ का नारा।

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